संविधान की प्रस्तावना और मूल संरचना सिद्धांत- नोट्स व प्रैक्टिस सेट

भारतीय संविधान, देश का सर्वोच्च कानून, भारत की शासन व्यवस्था की आधारशिला है। यह एक लिखित दस्तावेज है, जो सरकार की संरचना, प्रक्रियाएँ, शक्तियाँ, और कर्तव्यों के साथ-साथ नागरिकों के अधिकार और कर्तव्यों को निर्धारित करता है। इसे 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया, जिसने भारत को एक संसदीय लोकतंत्र बनाया। इसमें शुरूआत में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं, जो इसे विश्व के सबसे विस्तृत संविधानों में से एक बनाती हैं। यह संविधान देश की विविधता में एकता को बढ़ावा देता है, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, और एक उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करता है।

संविधान की प्रस्तावना और मूल संरचना सिद्धांत

 

📌 प्रस्तावना का मूल पाठ (Original Text of Preamble)

“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए; तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 ई० को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

प्रस्तावना का प्रारूप अमेरिका के संविधान से प्रेरित है। संविधान की प्रस्तावना और मूल संरचना सिद्धांत इसके दो मूलभूत स्तंभ हैं। प्रस्तावना, संविधान का परिचय पत्र, इसके मूल सिद्धांतों, उद्देश्यों, और आदर्शों का सार प्रस्तुत करती है। यह संविधान निर्माताओं की सोच को दर्शाती है। दूसरी ओर, मूल संरचना सिद्धांत, जो 1973 में केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित हुआ, यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के आधारभूत सिद्धांत संसद के संशोधनों से अक्षुण्ण रहें। यह मनमाने संशोधनों के खिलाफ अंतिम सुरक्षा प्रदान करता है।

ये दोनों अवधारणाएँ संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करती हैं। प्रस्तावना इसके दर्शन और उद्देश्यों को परिभाषित करती है, जबकि मूल संरचना सिद्धांत इनकी रक्षा करता है। संविधान का गतिशील विकास, जैसे 1976 में 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘पंथनिरपेक्ष’, और ‘अखंडता’ शब्दों का जोड़ा जाना, इसे बदलते संदर्भों में प्रासंगिक बनाता है।

प्रस्तावना का अर्थ और महत्व

प्रस्तावना संविधान की आत्मा और कुंजी है, जो इसके मूल दर्शन और उद्देश्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करती है। यह संविधान निर्माताओं की सोच और महत्वाकांक्षाओं को दर्शाती है। संविधान सभा के सदस्यों जैसे सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर, के. एम. मुंशी, और पंडित ठाकुर दास भार्गव ने इसे क्रमशः “दीर्घकालिक सपनों का विचार”, “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्यफल”, और “संविधान की आत्मा” कहा। यह भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, और गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित करती है, जो न्याय, स्वतंत्रता, समता, और बंधुत्व को बढ़ावा देता है।

प्रस्तावना गैर-न्यायिक है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे संविधान का हिस्सा माना है (केशवानंद भारती, 1973)। यह एक व्याख्यात्मक उपकरण के रूप में कार्य करती है, जो अस्पष्ट प्रावधानों की व्याख्या और कानूनों की संवैधानिकता के मूल्यांकन में मार्गदर्शन देती है।

प्रस्तावना के मुख्य शब्द और उनका विश्लेषण

  1. हम भारत के लोग: संविधान का स्रोत जनता है, जो अंतिम संप्रभुता को दर्शाती है।
  2. संप्रभु: भारत आंतरिक और बाहरी मामलों में स्वतंत्र है।
  3. समाजवादी: 42वें संशोधन (1976) द्वारा जोड़ा गया, यह सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देता है।
  4. पंथनिरपेक्ष: 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया, यह सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान को दर्शाता है।
  5. लोकतांत्रिक: सर्वोच्च शक्ति जनता में निहित है।
  6. गणतांत्रिक: राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा होता है।
  7. न्याय: सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करता है।
  8. स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा, और उपासना की स्वतंत्रता।
  9. समता: प्रतिष्ठा और अवसर की समानता।
  10. बंधुत्व: व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता (‘अखंडता’ 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया)।

प्रस्तावना में संशोधन

प्रस्तावना में केवल एक बार संशोधन हुआ, जो 42वें संशोधन (1976) के माध्यम से था। इसने ‘समाजवादी’, ‘पंथनिरपेक्ष’, और ‘अखंडता’ शब्द जोड़े। यह संशोधन आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार द्वारा किया गया, जिसे सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक विकास के लिए आवश्यक बताया गया। इसने प्रस्तावना को अधिक प्रतीकात्मक और व्याख्यात्मक महत्व दिया।

प्रस्तावना से संबंधित प्रमुख वाद

  1. बेरुबाड़ी केस (1960): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और इसे कानूनी अधिकार का स्रोत नहीं माना जा सकता।
  2. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): न्यायालय ने बेरुबाड़ी के निर्णय को खारिज कर प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा माना और मूल संरचना सिद्धांत पेश किया।

मूल संरचना सिद्धांत

मूल संरचना सिद्धांत, केशवानंद भारती मामले (1973) में न्यायमूर्ति हंस राज खन्ना द्वारा प्रतिपादित, यह सुनिश्चित करता है कि संविधान की कुछ आधारभूत विशेषताएँ संसद के संशोधनों से परे हैं। यह लोकतंत्र, कानून का शासन, न्यायिक समीक्षा, शक्तियों का पृथक्करण, और संघवाद जैसे तत्वों को संरक्षित करता है। इसकी परिभाषा को जानबूझकर खुला रखा गया है, जो इसे अनुकूलनशील बनाता है। यह मनमाने संशोधनों के खिलाफ अंतिम सुरक्षा प्रदान करता है।

मूल संरचना सिद्धांत का विकास

  1. स्वतंत्रता के बाद का संघर्ष: जमींदारी उन्मूलन जैसे प्रारंभिक संशोधन मौलिक अधिकारों से टकराए, जिससे तनाव उत्पन्न हुआ।
  2. शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951): न्यायालय ने माना कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत मौलिक अधिकारों सहित किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।
  3. आई.सी. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967): न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार अपरिवर्तनीय हैं, जिसने संसद की शक्ति को सीमित किया।
  4. 24वाँ संशोधन (1971): गोलकनाथ के निर्णय को अप्रभावी करने के लिए संसद ने अपनी संशोधन शक्ति की पुष्टि की।
  5. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): 7:6 के बहुमत से, न्यायालय ने मूल संरचना सिद्धांत स्थापित किया, यह कहते हुए कि संसद मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती।
  6. मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच संतुलन को मूल संरचना का हिस्सा माना गया।
  7. वामन राव बनाम भारत संघ (1981): सिद्धांत का प्रभाव 24 अप्रैल 1973 के बाद के संशोधनों पर लागू होता है।
  8. किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (1992): स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को मूल ढांचे में शामिल किया गया।
  9. इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992): विधि के शासन को मूल ढांचे का तत्व माना गया।
  10. एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): संघवाद, पंथनिरपेक्षता, और सामाजिक न्याय को मूल संरचना में शामिल किया गया।
  11. आई. आर. कोल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): नौवीं अनुसूची के कानूनों को मूल संरचना के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी जा सकती है।

मूल संरचना के प्रमुख तत्व

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता
  3. न्यायिक पुनर्वलोकन का अधिकार
  4. विधि का शासन
  5. शक्तियों का पृथक्करण
  6. संप्रभु, लोकतांत्रिक, गणराज्य
  7. संसदीय प्रणाली
  8. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
  9. धर्मनिरपेक्ष चरित्र
  10. राष्ट्र की एकता और अखंडता
  11. व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा
  12. मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के बीच संतुलन
  13. कल्याणकारी राज्य
  14. संघवाद

मूल संरचना सिद्धांत का महत्व

  1. स्थिरता और निरंतरता: संविधान के मूल सिद्धांतों को अक्षुण्ण रखता है।
  2. संसदीय शक्ति पर सीमा: संसद की संशोधन शक्ति को सीमित करता है।
  3. न्यायपालिका की भूमिका: संविधान के संरक्षक के रूप में न्यायपालिका को सशक्त बनाता है।
  4. मौलिक अधिकारों का संरक्षण: नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करता है।
  5. लोकतंत्र का संरक्षण: लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षित रखता है।